October 1, 2023

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“शब्द भ्रमित है, भावना ही यथार्थ है…इसलिए हमारे समाज में उलझनें ज्यादा हैं”

सुप्रीम कोर्ट

“शब्द भ्रमित है, भावना ही यथार्थ है...इसलिए हमारे समाज में उलझनें ज्यादा हैं”

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आज हमारा देश विकास के नाम पर अनेकों दावे कर रहा है. राजनीतिक गलियारों में रोज नई नई बहस छिड़ रही है. पूरे देश में कुछ ऐसा माहौल बना हुआ है कि शायद हिंदुओं को मुस्लिमों से डर लग रहा है और मुस्लिमों को हिंदुओं से. मैं ये बात आपके सामने इसलिए रख रहा है, क्योंकि आज हर इंसान इस कड़ी से कहीं न कहीं ताल्लुक जरुर रखता है. आम लोगों की भाषा में बात करें तो, राजनीति हमेशा गंदगी भरा काम होता है. हर इंसान नेता बनने से पहले अपने जहन में ये ख्वाब जरूर रखता है, की वो नेता बनकर देश की भलाई के लिए काम करेगा. देश को अपने समाज को आगे बढ़ाने के लिए काम करेगा. हालांकि ये राजनीति का असर है कि वो नेता बनने के बाद ये सब कुछ भूल जाता है. तभी तो आज आम देश का आम इंसान भगवान भरोसे है, राजनीति न्यायपालिका के भरोसे और तो बाकि का काम सरकार झुनझुना बजाते बजाते खत्म कर देती है.

झुनझुना बजाने से मतलब ये है कि सरकार ने अगर कोई छोटा भी काम करती है तो उसे लोगों के सामने इस तरह पेश करती है. उसका इस तरह हउ्उवा बनाती है कि उसने सब कुछ निपटा लिया है. हालांकि हमेशा सच्चाई इसके विपरीत होती है. जिससे आम इंसान हमेशा वाकिफ होता है. लेकिन उसको नजरअंदाज करता रहता है.

शायद, यही वजह है कि हमारे समाज की अनेकों तरह की तरस्वीर, अनेकों तरह के खांचे बन गये हैं. चलिए अब हम बात करते हैं, भारत के सर्वोच्च न्यायलय सुप्रीम कोर्ट की. सविंधान की माने सुप्रीम कोर्ट जो कहता है हर सरकार हर वर्ग उसे मानता है. लेकिन कभी कभी सत्ता के लालच में कभी कभी वोट बैंक की राजनीति के चलते सरकारें सुप्रीम की भी अवहेलना कर देती हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदल देती हैं. चलिए ये सब तो है राजनीतिक बहस, राजनीतिक मुद्दें जोकि कभी खत्म नहीं होगी.

चलिए अब अगर पिछले दिनों के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एक नजर डाले तो, सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद में नमाज पढना जरूरी नहीं, महिलाएं सबरीमाला मन्दिर में जा सकती हैं, अडल्ट्री कानून खत्म हो, समलैंगिकता जायज है. आधार जरूरी भी है, जरूरी नहीं भी है. इंस्टैंट तीन तलाक गलत है इन सब पर अपना फैसला सुनाया. इसके अलावा खतना पर एक याचिका स्वीकार भी की और आने वाले महीने में 29 तारीख से  अयोध्या पर सुनवाई भी शुरू हो जायेगी. अगर देखें तो लगता है, सुप्रीम कोर्ट इन दिनों हर मामले को निपटाना चाहता है. हालांकि जिस तरह कोर्ट ने फैसले दिये हैं जिस तरह की बहस देश में छिड़ी है. इतने भर से समझा जा सकता है कि इस देश में जनता किसके भरोसे है, और राजनीति में जनता कहां है, उसकी समस्याएं कहां है? इसलिए  हमें भी ये समझ लेना चाहिए कि इस लोकतंत्र में हमारी औकात क्या है?

2018 भी खत्म होने वाला है, यानि की लोकसभा चुनाव की तैयारियां भी हर पार्टी के जहन में हिलोरे मार रही हैं. पक्ष-विपक्ष दोनों चुनाव की तैयारियों में लगे  हैं. जहां कांग्रेस के अध्यक्ष पीएम को चोर बोल रहे हैं. वहीं दलित-ओबीसी देश में आरक्षण बचाने की लडाई लड रहे हैं. इसके उलट सामान्य जाति के लोग आरक्षण खत्म होने की लालच में भाजपा का गुलाम बने हुए हैं. कम्युनिस्ट फासीवाद खत्म करने के फेर में हैं. माया-अखिलेश-लालू महागठबन्धन बनाने की जुगत में है.

अब ऐसे में ये सवाल उठता है कि, जनता कहां है..? आम इंसान कहां है..? तो मैं आपको बताता हूं. जनता ट्रेन में है. इलाज के लिए, मजदूरी के लिए, पढाई के लिए, नौकरी के लिए. जनता भाग रही है, दौड रही है, उसे पता नहीं आगे अन्धा कुंआ है. लेकिन ये भागमभाग ही उसके लिए विकास है. आज मां-बाप बच्चों को पढाने के लिए परेशान हैं. हालांकि उन्हें ये मालूम नहीं बच्चों को कौन सा भविष्य मिलेगा, जब देश में फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट कानून लागू हो. दलित-ओबीसी आरक्षण के लिए हायतौबा मचाए हुए हैं, पता नहीं कहां एडमिशन मिलेगा कहां नहीं. हालांकि इस बीच सवर्णों को लगता है कि दलित-ओबीसी ने आरक्षण के बहाने उनका हिस्सा हडप लिया, बिना ये सोचे कि आज भी 25 लाख सरकारी पद रिक्त पडे हुए हैं और सरकार में इतना दम नहीं है कि वो इन पदों पर स्थायी बहाली कर सके.

किसान परेशान है कि उसे अपनी फसल का उचित कीमत नहीं मिल रहा है, जबकि वो खुद ही अपनी मां की कोख यानि की जमीन को सालों से बांझ बनाता आ रहा है. खुद भी जहर खा रहा है और दुनिया को भी जहर खिला रहा है. दुग्ध उत्पादक सडक पर इसलिए दूध बहा रहे हैं कि उन्हें सही कीमत नहीं मिल रही. लेकिन, 60 फीसदी नकली दूध खाने और खिलाने वालों के खिलाफ उनके मन में कोई गुस्सा नहीं है. मुसलमान अपने आप को अल्पसंख्यक और पिछडा मानते हुए भी अपने दकियानूसी नेताओं-धर्मगुरुओं के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. युवाओं को नया रोजगार बनाने के लिए लोन चाहिए, जो मिल नहीं रहा लेकिन 13 करोड मुद्रा लोन का प्रचार वही युवा जरूर अपने व्हाट्सएप्प से फेसबुक से कर रहे हैं. छोटे व्यापारी जीएसटी-नोटबंदी को कोस रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि 15 लाख करोड के एनपीए से उनका कोई नुकसान नहीं होगा.

संपूर्णता में जनता को इससे कोई मतलब नहीं कि वो क्या खा रही है, क्या पी रही है, किस हवा में सांस ले रही है, कौन सा राजनीतिक फैसला उसके जीवन से जुडा है, कौन सा उसके वोट से? लेकिन, हम जनता भाग्यवादी हैं, भोले हैं, धूर्त हैं. हम सब भूल जाते हैं, जब हमारा नेता हमसे रामराज लाने की बात करता है. तब हम भी लालची हो जाते हैं. हमें मन्दिर दिखता है, मस्जिद दिखता है, अपने खाते में 15 लाख रुपया दिखता है, आरक्षण का खात्मा दिखता है और हम सब खुश हो जाते हैं.

और फिर मतदान करने के बाद……करने के बाद फिर से पांच साल बीत जाने का इंतजार करते हैं और इंतजार करते रहेंगे. इसलिए शायद, “शब्द भ्रमित है, भावना ही यथार्थ है…शायद यही वजह है कि हमारे समाज में उलझनें ज्यादा हैं.”

 

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